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Maharana Pratap Biography in Hindi| महाराणा प्रताप का जीवन परिचय

लेखक: Aman Kumawatश्रेणी: Hindi Storyपढ़ने का समय: 3 मिनट

Maharana Pratap Biography History Jivani in Hindi| महाराणा प्रताप का जीवन परिचय

Maharana Pratap Biography History Jivani in Hindi राजस्थान के राजपूत राज्यों ने भारत में आने वाली विदेशी आक्रमणकारियों का प्रारंभ से ही प्रतिरोध किया, पृथ्वीराज के बाद मेवाड़ के महाराणा सांगा, मारवाड़ के मालदेव, राव चंद्रसेन, सिरोही के देवड़ा सुरताण, इत्यादि ने इस संघर्ष को जारी रखा

सन 1526 ईस्वी के पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराकर बाबर ने दिल्ली पर मुगल शेरशाह सूर से हार गया, दिल्ली पर शेर शाह सूर के वंशज अधिक समय तक शासन नहीं संभाल सके, 15 वर्ष के भीतर उसके एक प्रधान हरियाणा में रेवाड़ी के हेमचंद्र जो कि हेमू के नाम से प्रसिद्ध है उन्होंने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया, हेमचंद्र 'विक्रमादित्य' के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप बायोग्राफी इन हिंदी | Veer Shiromani Maharana Pratap Biography jivani Parichay

Veer Shiromani Maharana Pratap Biography Jivani Kahani वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ईसवी को कुंभलगढ़ में हुआ, इनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह व माता का नाम जयंताभाई सोनगरा था, महाराणा उदय सिंह की 28 फरवरी 1572 ईस्वी में मृत्यु हो गई और उसी दिन महाराणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में गोगुंदा में राज्यारोहण​ हुआ, यह शासन महाराणा प्रताप के लिए कांटो का मुकुट था, किंतु स्वतंत्रता प्रेमी महाराणा प्रताप ने इसे संघर्ष स्वीकार किया, वह तनिक भी विचलित नहीं हुए

महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ और गोगुंदा को केंद्र बनाकर समस्त मेवाड़ राज्य को स्वतंत्र कराने की दृढ़ प्रतिज्ञा की, जनमानस को स्वतंत्रता एवं संस्कृति की रक्षा के लिए प्रेरित किया, जनजाति वर्ग को संगठित कर उन्हें अपना सेना का अंग बनाया, कुंभलगढ़ से लगे गोडवाड भूभाग और अरावली की घाटियों में सैनिक व्यवस्था की, और सिरोही व गुजरात से लगी सीमा व्यवस्था को संगठित किया

मेवाड़ से 1567- 1568 ईस्वी में हुए संघर्ष की भयंकरता से अकबर परिचित था अतः शांति प्रयासों एवं कूटनीति से समस्या को सुलझाने का प्रयास किया, उसने एक एक करके 4 शिष्टमंडल को महाराणा प्रताप के पास भेजा किंतु महाराणा प्रताप ने उसके कूटनीति प्रयासों को एकदम विफल कर दिया

महाराणा प्रताप हल्दीघाटी का युद्ध और चेतक Horse की कहानी | Maharana Pratap Haldi Ghati War Or Chetak Horse

Maharana Pratap Haldi Ghati War Or Chetak Horse kahani  प्रताप को अब अनुभव हो गया था की युद्ध अवश्यंभावी है तब प्रताप ने युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी मेवाड़ के मुख्य पहाड़ी नाकों (पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश के संकडे मार्ग) एवं सामरिक महत्व के स्थानों पर अपनी स्थिति मजबूत करनी शुरू कर दी मैदानी क्षेत्रों से लोगों को पहाड़ी इलाकों में भेज दिया, तथा खेती करने पर पाबंदी लगा दी ताकि शत्रु सेना को रसद सामग्री नहीं मिल सके

महाराणा प्रताप को सभी वर्गो का पूर्ण सहयोग मिला, अतः जनता युद्ध के लिए मानसिक रूप से तैयार थी उधर अकबर ने अन्य सैन्य अभियानों​ मुक्ति पाकर मेवाड़ की ओर ध्यान केंद्रित किया, उसने मानसिंह को प्रधान सेनानायक बनाकर प्रताप के विरुद्ध भेजा जो लगभग 5000 सैनिकों के साथ आया, 18 जून 1576 ई० को प्रातः हल्दीघाटी के मैदान में युद्ध शुरु हुआ, महाराणा प्रताप ने युद्ध की शुरुआत की उनके साथ रावत किशनदास, भीम सिंह डोडिया, रामदास मेड़तिया, रामशाह तंवर, झाला मान, झाला बिदा, मानसिंह सोनगरा आदि थे

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प्रताप के चंदावल दस्ते में पुरोहित गोपीनाथ, जयमल मेहता, चारण जैसा आदि तथा मध्य भाग के बांयी ओर भामाशाह एवं अन्य सैनिक थे, चंदावल में ही घाटी के मुहाने पर राणा पूंजा के नेतृत्व में भील लोग तीर कमान के साथ मौजूद थे, हरावल दस्ता में चुंडावतों के साथ अग्रिम पंक्ति में हकीम खान सूर भी थे, मुगल सेना पर सर्वप्रथम आक्रमण इन्होंने किया, जिससे मुगल सेना पूर्ण रूप से अस्त व्यस्त हो गई, रही कसर प्रताप के आक्रमण ने पूरी कर दी, मुगल इतिहासकार बदायूनी स्वीकार करता है कि मेवाड़ी सेना के आक्रमण का वेग कितना तीव्र था कि मुगल सैनिकों ने बनास के दूसरे किनारे से 5-6 कोस तक(5-6km) भाग कर अपनी जान बचाई

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अब महाराणा प्रताप ने अपने चेतक घोड़े को छलांग लगवा कर हाथी पर सवार मानसिंह पर अपने भाले से वार किया पर मानसिंह बच गया, उसका हाथी मानसिंह को लेकर भाग गया, इस घटना में चेतक का पिछला पैर हाथी किसिंग में लगी तलवार से जख्मी हो गया, महाराणा प्रताप को शत्रु सेना ने घेर लिया लेकिन प्रताप ने संतुलन बना रखा तथा अपनी शक्ति का अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए मुगल सेना में उपस्थित बलिष्ठ पठान बलोल खान के वार का ऐसा प्रतिकार किया कि खान के जिरह बख्तर शहीद उसके घोड़े के भी दो फाड़ हो गए
इस दृश्य को देखकर मुगल सेना में हड़कंप मच गया प्रताप ने युद्ध को मैदान के बजाए पहाड़ों में मोड़ने का प्रयास किया, उनकी सेना के दोनों भाग एकत्र होकर पहाड़ों की ओर मुड़े और अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे, तब तक मुगल सेना को रोके रखने का उत्तरदायित्व झाला मान को सौंपा, झाला मान ने अपना जीवन उत्सर्ग करके भी अपने कर्तव्य का पालन किया, इस युद्ध में मुगल सैनिको का मनोबल इतना टूट चुका था कि उसमें महाराणा प्रताप की सेना का पीछा करने का साहस नहीं रहा

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मेवाड़ की इस विजय ने और प्रताप के नेतृत्व ने जनमानस का विश्वास दृढ़ किया, इस युद्ध में मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ दिया, अब  प्रताप वीर शिरोमणि के रुप में स्थापित हो गए, भारत में पहली बार मुगल सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा, मुगल सेना को प्रताप का भय निरंतर सताता रहा इसलिए हल्दीघाटी से गोगुंदा पहुंचने पर भी वह इस भय से उबर न सकी, प्रताप के एकाएक आक्रमणों के भय से मुगल लश्कर ने गोगुंदा में अपने क्षेत्र के इर्द-गिर्द ईंटों से इतनी बड़ी दीवार का निर्माण कराया की प्रताप के घुड़सवार भी कूदकर अंदर ना आ सके, गोगुंदा में मुगल सेना की हालत बंदी जैसी हो गई थी

भीलू राणा पूंजा के नेतृत्व में प्रताप के सैनिकों ने गोगुंदा की इतनी दृढ़ नाकेबंदी कर दी कि बाहर से किसी प्रकार की खाद्य​ वह अन्य सामग्री मुगल छावनियों में नहीं पहुंच सकी, इस कारण मुगल सैनिको एवं जानवरों के भूखे मरने की नौबत आने लगी, निराश होकर मुगल सेना गोगुंदा खाली कर अकबर के दरबार में लौट गई, हल्दीघाटी की पराजय से त्रस्त होकर अकबर ने मान सिंह व आसफ खान के मुगल दरबार में उपस्थित होने पर रोक लगा दी थी, शाही सेना के जाने के बाद प्रताप फिर कुंभलगढ़ लौट के आए

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अगले 5 वर्ष तक प्रताप छापामार युद्ध प्रणाली से मुगलों को छकाते रहे, अकबर ने तीन बार शाहबाज खान को प्रताप के विरुद्ध भेजा, किंतु उसे असफल होकर लौटना पड़ा, मुगलों को असहनीय अवस्था में पाकर प्रताप ने प्रतिरक्षात्मक की अपेक्षा आक्रामक नीति अपनाई, उन्होंने इसका पहला प्रयोग दिवेर में किया, अक्टूबर 1582 ईस्वी में प्रताप ने अपने सैनिकों के साथ मुगलों के प्रमुख थाने "दिवेर" (राजसमंद) का घर लिया, मुगल सेनानायक सुल्तान खान को जैसे ही इस चेहरे की खबर लगी, उसने आस पास के 17 थानों के थानेदारों को बुला लिया,

दिवेर थाना के पास दोनों सेनाएं आमने सामने हुई, सुल्तान खान हाथी पर सवार था और महाराणा प्रताप के साथ युवराज अमर सिंह सहित अनेक सरदार व भील सैनिक थे, प्रताप ने सुल्तान खान के हाथी को मार डाला तो वह भाग गया और घोड़े पर सवार होकर पुनः युद्ध भूमि में आया, अमर सिंह तलवार लेकर सुल्तान खान की तरफ लपके और तलवार का वार किया, सुल्तान खान तलवार के वार से बचने की कोशिश की तो अमर सिंह ने अपने भाले से उसे बींध डाला, इससे मुगल सेना वहां ठहर नहीं सकी

दिवेर युद्ध में भी प्रताप की निर्णायक जीत हुई इसके बाद प्रताप कुंभलगढ़ की तरफ बढ़े तथा कुंभलगढ़ सहित आसपास के सभी मुगल थानों पर अधिकार कर लिया, अगले 2 वर्षों तक अकबर ने मेवाड़ में सैनिक अभियान जारी रखें किंतु उनमें असफलता के कारण सन 1584 ईसवी के पश्चात तो अकबर का प्रताप के विरुद्ध सेना भेजने का साहस ही नहीं रहा, अब प्रताप ने चावंड को अपनी नई राजधानी बनाई और आक्रामक नीति अपनाकर एक-एक कर अपने पिता के काल में अकबर के हाथों गए स्थानों को विजित कर लिया, 19 जनवरी 1597 इसवी 15 वर्ष की अवस्था में चावंड में स्वाधीनता के इस महान पुजारी ने अंतिम सांस ली

महाराणा प्रताप महान का व्यक्तित्व| Maharan Pratap Mahan ka Vyktitva (the personality of Maharana Pratap Singh Sisodiya Maha)

Maharan Pratap Mahan ka Vyktitva महाराणा प्रताप श्रेष्ठ योद्धा और सच्चे जननायक थे, सभी धर्मों के लोग मातृभूमि के स्वाधीनता संघर्ष में प्रताप के साथ थे, प्रताप ने अपने व्यक्तित्व से मेवाड़ के प्रत्येक व्यक्ति को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सब कुछ न्योछावर कर देने वाला योद्धा बना दिया, इससे महाराणा प्रताप जनमानस के लिए प्रातः स्मरणीय बन गए, अपने देश की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता के लिए सतत संघर्ष और उसका विविध क्षेत्र में योगदान उन्हें महान सिद्ध करता है

"पग-पग भम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धर्म

महाराणा मेवाड़, हरिदे बसिया हिन्द रे"

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